Friday, October 31, 2008

पसंद 22 (नर हो न निराश करो मन को)

कुछ काम करो कुछ काम करो
जग में रह के निज नाम करो।

यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो!
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो।
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो न निराश करो मन को।

सँभलो कि सुयोग न जाए चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला!
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना।
अखिलेश्वर है अवलम्बन को
नर हो न निराश करो मन को।।

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ!
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठ के अमरत्व विधान करो।
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को।।

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे।
सब जाय अभी पर मान रहे
मरणोत्तर गुंजित गान रहे।
कुछ हो न तजो निज साधन को
नर हो न निराश करो मन को।।

- मैथिली शरण गुप्त

Thursday, October 30, 2008

पसंद २१ - इंशाजी उठो अब कूच करो

मेरी पसंद में आज प्रस्तुत है इब्ने इंशा साहब के एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल - इंशाजी उठो अब कूच करोवीडियो में इस ग़ज़ल को प्रस्तुत कर रहे हैं अपने समय के प्रसिद्द ग़ज़लकार उस्ताद अमानत अली खानतो आप भी लुत्फ़ उठाइए एक बेहतरीन ग़ज़ल और उतनी ही बेहतरीन प्रस्तुति का -



इंशाजी उठो अब कूच करो,

इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब,
जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में
देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए
उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या

- इब्ने इंशा

Friday, October 24, 2008

पसंद - 20 - मौन करूणा

मैं तुम्हारी मौन करूणा का सहारा चाहता हूँ
जनता हूँ इस जगत में फूल की है आयु कितनी
और यौवन में उभरती प्राण में है वायु कितनी
इसलिए आकाश का विस्तार सारा चाहता हूँ
मैं तुम्हारी मौन करुणा का सहारा चाहता हूँ


प्रश्न चिन्हों में उठी है भाग्य सागर की हिलोरें
आसुओं से रहित होंगी क्या नयन की नामित कोरें
जो तुम्हे कर दे द्रवित वह अश्रु धरा चाहता हूँ
मैं तुम्हारी मौन करूणा का सहारा चाहता हूँ


जोड़ कर कण-कण कृपण, आकाश ने तारे सजाये

जो की उज्जवल है सही, पर क्या किसी के काम आयें
प्राण, मैं तो मार्ग दर्शक एक तारा चाहता हूँ
मैं तुम्हारी मौन करूणा का सहारा चाहता हूँ


यह उठा कैसा प्रभंजन, जुड़ गयी जैसे दिशाएं
एक तरुणी एक नाविक और कितनी आपदाएं
क्या कहूँ मझधार में ही, मैं किनारा चाहता हूँ
मैं तुम्हारी मौन करूणा का सहारा चाहता हूँ

कवि - डा राम कुमार वर्मा

Tuesday, October 21, 2008

पसंद - 19 कभी हम खूबसूरत थे

जब ब्लॉग का नाम ही मेरी पसंद है तो मैंने सोचा क्यूँ कहानी और कविताओं के अलावा मेरे कुछ पसंदीदा गजल, नज्म, कव्वाली और गीतों को भी क्यूँ ना जोड़ा जाए।
तो आज यहाँ प्रस्तुत है मेरी पसंदीदा गजलों में से एक " कभी हम खूबसूरत थे " इसे गया है पाकिस्तान की मशहूर गाइका नय्यारा नूर साहिबा ने।
तो आप भी लुत्फ़ उठाइये एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल का।