Saturday, July 19, 2008

पसंद 17 (वीर तुम बढे चलो)

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

हाथ में ध्वजा रहे ,
बाल - दल सजा रहे ,
ध्वज कभी झुके नहीं ,
दल कभी रुके नहीं ।

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

सामने पहाड़ हो ,
सिंह की दहाड़ हो ,
तुम निडर हटो नहीं,
तुम निडर डटो वहीं ।

वीर तुम बढे चलो ।
धीर तुम बढे चलो ।।

मेघ गरजते रहें
मेघ बरसते रहें
बिजलियाँ कड़क उठें
बिजलियाँ तड़क उठें

वीर तुम बढे चलो
धीर तुम बढे चलो

प्रात हो कि रात हो
संग हो ना साथ हो
सुर्या से बढे चलो
चंद्र से बढे चलो ।

वीर तुम बढे चलो
धीर तुम बढे चलो

-द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी

Tuesday, July 15, 2008

पसंद १६ (आराम करो)

आराम करो.. आराम करो

एक मित्र मिले, बोले, "लाला, तुम किस चक्की का खाते हो?
इस डेढ़ छँटाक के राशन में भी तोंद बढ़ाए जाते हो।
क्या रक्खा है माँस बढ़ाने में, मनहूस, अक्ल से काम करो।
संक्रान्ति-काल की बेला है, मर मिटो, जगत में नाम करो।"
हम बोले, "रहने दो लेक्चर, पुरुषों को मत बदनाम करो।
इस दौड़-धूप में क्या रक्खा, आराम करो, आराम करो।

आराम ज़िन्दगी की कुंजी, इससे न तपेदिक होती है।
आराम सुधा की एक बूंद, तन का दुबलापन खोती है।
आराम शब्द में 'राम' छिपा जो भव-बंधन को खोता है।
आराम शब्द का ज्ञाता तो विरला ही योगी होता है।
इसलिए तुम्हें समझाता हूँ, मेरे अनुभव से काम करो।
ये जीवन, यौवन क्षणभंगुर, आराम करो, आराम करो।

यदि करना ही कुछ पड़ जाए तो अधिक न तुम उत्पात करो।
अपने घर में बैठे-बैठे बस लंबी-लंबी बात करो।
करने-धरने में क्या रक्खा जो रक्खा बात बनाने में।
जो ओठ हिलाने में रस है, वह कभी न हाथ हिलाने में।
तुम मुझसे पूछो बतलाऊँ -- है मज़ा मूर्ख कहलाने में।
जीवन-जागृति में क्या रक्खा जो रक्खा है सो जाने में।

मैं यही सोचकर पास अक्ल के, कम ही जाया करता हूँ।
जो बुद्धिमान जन होते हैं, उनसे कतराया करता हूँ।
दीए जलने के पहले ही घर में आ जाया करता हूँ।
जो मिलता है, खा लेता हूँ, चुपके सो जाया करता हूँ।
मेरी गीता में लिखा हुआ -- सच्चे योगी जो होते हैं,
वे कम-से-कम बारह घंटे तो बेफ़िक्री से सोते हैं।

अदवायन खिंची खाट में जो पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, इंजन जैसा लग जाता है।
मैं मेल ट्रेन हो जाता हूँ, बुद्धि भी फक-फक करती है।
भावों का रश हो जाता है, कविता सब उमड़ी पड़ती है।

मैं औरों की तो नहीं, बात पहले अपनी ही लेता हूँ।
मैं पड़ा खाट पर बूटों को ऊँटों की उपमा देता हूँ।
मैं खटरागी हूँ मुझको तो खटिया में गीत फूटते हैं।
छत की कड़ियाँ गिनते-गिनते छंदों के बंध टूटते हैं।
मैं इसीलिए तो कहता हूँ मेरे अनुभव से काम करो।
यह खाट बिछा लो आँगन में, लेटो, बैठो, आराम करो।

- गोपालप्रसाद व्यास

Thursday, July 3, 2008

पसंद 15 (टोबा टेक सिंह)


जब भी और जहाँ भी उर्दू कहानी की बात हो और सआदत हसन मंटो का नाम आए ऐसा हो ही नही सकता मात्र 42 साल के जीवन में मंटो साहब उर्दू-हिन्दी कहानी को अपनी लघु कथाओं की एक ऐसी घरोहर दे गए हैं जिसके अन्यत्र उदाहरण मिलना असंभव तो नही पर मुश्किल जरूर है

यहाँ प्रस्तुत है मंटो साहब की एक प्रसिद्ध कहानी - टोबा टेक सिंहलाहौर पागलखाने में बंद एक पागल कैदी को माध्यम बना के बँटवारे के समय की मनोदशा दर्शाती ये कहानी मंटो के लेखन की गहरे को बखूबी बयां करती हैतो लुत्फ़ उठाई इस कहानी का ....



बँटवारे के दो-तीन साल बाद पाकिस्तान और हिंदुस्तान की हुकूमतों को ख़्याल आया कि अख़्लाक़ी क़ैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए, यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें पाकिस्तान पहुँचा दिया जाए और जो हिंदू और सिख पाकिस्तान के पागलख़ानों में हैं, उन्हें हिंदुस्तान के हवाले कर दिया जाए. मालूम नहीं, यह बात माक़ूल थी या ग़ैर माक़ूल, बहरहाल दानिशमंदों के फ़ैसले के मुताबिक़ इधर-उधर ऊँची सतह की कान्फ्रेंसें हुईं और बिलआख़िर पागलों के तबादले के लिए एक दिन मुक़र्रर हो गया
अच्छी तरह छानबीन की गई- वे मुसलमान पागल जिनके लवाहिक़ीन हिंदुस्तान ही में थे, वहीं रहने दिए गए; जितने हिंदू-सिख पागल थे, सबके-सब पुलिस की हिफाज़त में बॉर्डर पह पहुंचा दिए गए.
उधर का मालूम नहीं लेकिन इधर लाहौर के पागलख़ाने में जब इस तबादले की ख़बर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प चिमेगोइयाँ (गपशप) होने लगीं

एक मुसलमान पागल जो 12 बरस से, हर रोज़, बाक़ायदगी के साथज़मींदारपढ़ता था, उससे जब उसके एक दोस्त ने पूछा: “मौलबी साब, यह पाकिस्तान क्या होता है...?” तो उसने बड़े ग़ौरो-फ़िक़्र के बाद जवाब दिया: “हिंदुस्तान में एक ऐसी जगह है जहाँ उस्तरे बनते हैं...!” यह जवाब सुनकर उसका दोस्त मुतमइन हो गया.
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा: “सरदार जी, हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है... हमें तो वहाँ की बोली नहीं आती...” दूसरा मुस्कराया; “मुझे तो हिंदुस्तोड़ों की बोली आती है, हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़ आकड़ फिरते हैं...”

एक दिन, नहाते-नहाते, एक मुसलमान पागल नेपाकिस्तान: जिंदाबादका नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फ़र्श पर फिसलकर गिरा और बेहोश हो गया

बाज़ पागल ऐसे भी थे जो पागल नहीं थे; उनमें अक्सरीयत (बहुतायत) ऐसे क़ातिलों की थी जिनके रिश्तेदारों ने अफ़सरों को कुछ दे दिलाकर पागलख़ाने भिजवा दिया था कि वह फाँसी के फंदे से बच जाएँ; यह पागल कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान क्यों तक़्सीम हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है; लेकिन सही वाक़िआत से वह भी बेख़बर थे; अख़बारों से उन्हें कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ और जाहिल थे, जिनकी गुफ़्तुगू से भी वह कोई नतीजा बरामद नहीं कर सकते थे. उनको सिर्फ़ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्नाह है: जिसको क़ायदे-आज़म कहते हैं; उसने मुसलमानों के लिए एक अलहदा मुल्क बनाया है जिसका नाम पाकिस्तान है; यह कहाँ है, इसका महल्ले-वुक़ू (भौगोलिक स्थिति) क्या है, इसके मुताल्लिक़ वह कुछ नहीं जानते थे- यही वजह है कि वह सब पागल जिनका दिमाग़ पूरी तरह माऊफ़ नहीं हुआ था, इस मख़मसे में गिरफ़्तार थे कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में; अगर हिंदुस्तान में है तो पाकिस्तान कहाँ है; अगर पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि वह कुछ अर्से पहले यहीं रहते हुए हिंदुस्तान में थे

एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देते वह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियों ने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकाया गया तो उसने कहा: “मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं पाकिस्तान में... मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा...”


एक पागल तो हिंदुस्तान और पाकिस्तान, पाकिस्तान और हिंदुस्तान के चक्कर में कुछ ऐसा गिरफ़्तार हुआ कि और ज़्यादा पागल हो गया. झाड़ू देते-देते वह एक दिन दरख़्त पर चढ़ गया और टहने पर बैठकर दो घंटे मुसलसल तक़रीर करता रहा, जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाज़ुक मसले पर थी... सिपाहियों ने जब उसे नीचे उतरने को कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया. जब उसे डराया-धमकाया गया तो उसने कहा: “मैं हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं पाकिस्तान में... मैं इस दरख़्त ही पर रहूंगा...” बड़ी देर के बाद जब उसका दौरा सर्द पड़ा तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिलकर रोने लगा- उस ख्याल से उसका दिल भर आया था कि वह उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएँगे...

एक एमएससी पास रेडियो इंजीनियर में, जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग-थलग बाग़ की एक ख़ास रविश पर सारा दिन ख़ामोश टहलता रहता था, यह तब्दीली नुमूदार हुई कि उसने अपने तमाम कपड़े उतारकर दफ़ेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग़ में चलना-फिरना शुरू कर दिया

चियौट के एक मोटे मुसलमान ने, जो मुस्लिम लीग का सरगर्म कारकुन रह चुका था और दिन में 15-16 मर्तबा नहाया करता था, यकलख़्त यह आदत तर्क कर दी उसका नाम मुहम्मद अली था, चुनांचे उसने एक दिन अपने जंगल में एलान कर दिया कि वह क़ायदे-आज़म मुहम्मद अली जिन्नाह है; उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारा सिंह बन गया- इससे पहले कि ख़ून-ख़राबा हो जाए, दोनों को ख़तरनाक पागल क़रार देकर अलहदा-अलहदा बंद कर दिया गया

लाहौर का एक नौजवान हिंदू पकील मुहब्बत में नाकाम होकर पागल हो गया; जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो बहुत दुखी हुआ. अमृतसर की एक हिंदू लड़की से उसे मुहब्बत थी जिसने उसे ठुकरा दिया था मगर दीवानगी की हालत में भी वह उस लड़की को नहीं भूला था-वह उन तमाम हिंदू और मुसलमान लीडरों को गालियाँ देने लगा जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए हैं, और उनकी महबूबा हिंदुस्तानी बन गई है और वह पाकिस्तानीजब तबादले की बात शुरू हुई तो उस वकील को कई पागलों ने समझया कि दिल बुरा करेउसे हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा, उसी हिंदुस्तान में जहाँ उसकी महबूबा रहती है- मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था; उसका ख़याल था कि अमृतसर में उसकी प्रैक्टिस नहीं चलेगी.
योरोपियन वार्ड मं दो एंग्लो इंडियन पागल थे. उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आज़ाद करके अंग्रेज़ चले गए हैं तो उनको बहुत सदमा हुआ; वह छुप-छुपकर घंटों आपस में इस अहम मसले पर गुफ़्तुगू करते रहते कि पागलख़ाने में अब उनकी हैसियत किस क़िस्म की होगी; योरोपियन वार्ड रहेगा या उड़ा दिया जाएगा; ब्रेक-फ़ास्ट मिला करेगा या नहीं; क्या उन्हें डबल रोटी के बजाय ब्लडी इंडियन चपाटी तो ज़हर मार नहीं करनी पड़ेगी?

एक सिख था, जिसे पागलख़ाने में दाख़िल हुए 15 बरस हो चुके थे. हर वक़्त उसकी ज़ुबान से यह अजीबो-ग़रीब अल्फ़ाज़ सुनने में आते थे : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन…” वह दिन को सोता था रात को

पहरेदारों का यह कहना था कि 15 बरस के तलीव अर्से में वह लहज़े के लिए भी नहीं सोया था; वह लेटता भी नहीं था, अलबत्ता कभी-कभी दीवार के साथ टेक लगा लेता था- हर वक़्त खड़ा रहने से उसके पाँव सूज गए थे और पिंडलियाँ भी फूल गई थीं, मगर जिस्मानी तकलीफ़ के बावजूद वह लेटकर आराम नहीं करता था

हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…! ” लेकिन बाद मेंआफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंटकी जगहआफ़ दि टोबा सिंह गवर्नमेंट!” ने ले ली

हिंदुस्तान, पाकिस्तान और पागलों के तबादले के मुताल्लिक़ जब कभी पागलख़ाने में गुफ़्तुगू होती थी तो वह ग़ौर से सुनता था; कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख़याल़ है तो वह बड़ी संजीदगी से जवाब देता : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट…! ” लेकिन बाद मेंआफ़ दि पाकिस्तान गवर्नमेंटकी जगहआफ़ दि टोबा सिंह गवर्नमेंट!” ने ले ली, और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर दिया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है, जहाँ का वह रहने वाला है. किसी को भी मालूम नहीं था कि टोबा सिंह पाकिस्तान में है... या हिंदुस्तान में; जो बताने की कोशिश करते थे वह ख़ुद इस उलझाव में गिरफ़्तार हो जाते थे कि सियालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है. क्या पता है कि लाहौर जो आज पाकिस्तान में है... कल हिंदुस्तान में चला जाए... या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए... और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता है कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान, दोनों किसी दिन सिरे से ग़ायब ही हो जाएँ...!

इस सिख पागल के केश छिदरे होकर बहुत मुख़्तसर रह गए थे; चूंकि बहुत कम नहाता था, इसलिए दाढ़ी और सिर के बाल आपस में जम गए थे. जिसके बायस उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी; मगर आदमी बे-ज़रर था. 15 बरसों में उसने कभी किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था. पागलख़ाने के जो पुराने मुलाज़िम थे, वह उसके मुताल्लिक़ इतना जानते थे कि टोबा टेक सिंह में उसकी कई ज़मीनें थीं; अच्छा खाता-पीता ज़मींदार था कि अचानक दिमाग़ उलट गया, उसके रिश्तेदार उसे लोहे की मोटी-मोटी ज़ंजीरों में बाँधकर लाए और पागलख़ाने में दाख़िल करा गए

महीने में एक मुलाक़ात के लिए यह लोग आते थे और उसकी ख़ैर-ख़ैरियत दरयाफ़्त करके चले जाते थे; एक मुद्दत तक यह सिलसिला जारी रहा, पर जब पाकिस्तान, हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हुई तो उसका आना-जाना बंद हो गया

उसका नाम बिशन सिंह था मगर सब उसे टोबा टेक सिंह कहते थे. उसको यह क़त्अन मालूम नहीं था कि दिन कौन सा है, महीना कौन सा है या कितने साल बीत चुके हैं; लेकिन हर महीने जब उसके अज़ीज़ो-अकारिब उससे मिलने के लिए आने के क़रीब होते तो उसे अपने आप पता चल जाता; उस दिन वह अच्छी तरह नहाता, बदन पर ख़ूब साबुन घिसता और बालों में तेल डालकर कंघा करता; अपने वह कपड़े जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था, निकलवाकर पहनता और यूँ सज-बनकर मिलने वालों के पास जाता. वह उससे कुछ पूछते तो वह ख़ामोश रहता या कभी-कभारऔपड़ दि गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी लालटेन...” कह देता

उसकी एक लड़की थी जो हर महीने एक ऊँगली बढ़ती-बढ़ती 15 बरसों में जवान हो गई थी. बिशन सिंह उसको पहचानता ही नहीं था-वह बच्ची थी जब भी अपने बाप को देखकर रोती थी, जवान हुई तब भी उसकी आँखों से आँसू बहते थे

पाकिस्तान और हिंदुस्तान का क़िस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेक सिंह कहाँ है; जब उसे इत्मीनानबख़्श जवाब मिला तो उसकी कुरेद दिन--दिन बढ़ती गई. अब मुलाक़ात भी नहीं आती थी; पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले रहे हैं, पर अब जैसे उसके दिल की आवाज़ भी बंद हो गई थी जो उनकी आमद की ख़बर दे दिया करती थी-उसकी बड़ी ख़्वाहिश थी कि वह लोग आएँ जो उससे हमदर्दी का इज़हार करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयाँ और कपड़े लाते थे. वह आएँ तो वह उनके पूछे कि टोबा टेक सिंह कहाँ है... वह उसे यक़ीनन बता देंगे कि टोबा टेक सिंह वहीं से आते हैं जहाँ उसकी ज़मीनें हैं

पागलख़ाने में एक पागल ऐसा भी था जो ख़ुद को ख़ुदा कहता था. उससे जब एक रोज़ बिशन सिंह ने पूछा कि टोबा टेक सिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में तो उसने हस्बे-आदत क़हक़हा लगाया और कहा : “वह पाकिस्तान में है हिंदुस्तान में, इसलिए कि हमने अभी तक हुक्म ही नहीं दिया...!”

बिशन सिंह ने उस ख़ुदा से कई मर्तबा बड़ी मिन्नत-समाजत से कहा कि वह हुक्कम दे दे ताकि झंझट ख़त्म हो, मगर ख़ुदा बहुत मसरूफ़ था, इसलिए कि उसे और बे-शुमार हुक्म देने थे

एक दिन तंग आकर बिशन सिंह ख़ुदा पर बरस पड़ा: “ औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ वाहे गुरु जी दा ख़ालसा एंड वाहे गुरु जी दि फ़तह...!” इसका शायद मतलब था कि तुम मुसलमानों के ख़ुदा हो, सिखों के ख़ुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते.
तबादले से कुछ दिन पहले टोबा टेक सिंह का एक मुसलमान जो बिशन सिंह का दोस्त था, मुलाक़ात के लिए आया; मुसलमान दोस्त पहले कभी नहीं आया था. जब बिशन सिंह ने उसे देखा तो एक तरफ़ हट गया, फिर वापिस जाने लगा मगर सिपाहियों ने उसे रोका: “यह तुमसे मिलने आया है...तुम्हारा दोस्त फ़ज़लदीन है...!”

बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा

बिशन सिंह ने फ़ज़लदीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा : “मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूँ लेकिन फ़ुरसत ही मिली... तुम्हारे सब आदमी ख़ैरियत से हिंदुस्तान चले गए थे... मुझसे जितनी मदद हो सकी, मैंने की... तुम्हारी बेटी रूपकौर...” वह कहते-कहते रुक गया

बिशन सिंह कुछ याद करने लगा : “बेटी रूपकौर...”

फ़ज़लदीन ने फिर कहना शुरू किया : उन्होंने मुझे कहा था कि तुम्हारी ख़ैर-ख़ैरियत पूछता रहूँ... अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो... भाई बलबीर सिंह और भाई वधावा सिंह से मेरा सलाम कहना और बहन अमृतकौर से भी... भाई बलबीर से कहना कि फ़ज़लदीन राज़ीख़ुशी है...दो भूरी भैसें जो वह छोड़ गए थे, उनमें से एक ने कट्टा दिया है... दूसरी के कट्टी हुई थी, पर वह 6 दिन की होके मर गई...और... मेरे लायक़ जो ख़िदमत हो, कहना, मैं वक़्त तैयार हूँ... और यह तुम्हारे लिए थोड़े-से मरोंडे लाया हूँ...!”

बिशन सिंह ने मरोंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फ़ज़लदीन से पूछा : “टोबा टेक सिंह कहाँ है...”

फ़ज़लदीन ने क़दरे हैरत से कहा : “कहाँ है... वहीं है, जहाँ था!”

बिशन सिंह ने फिर पूछा : “पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में...”

हिंदुस्तान में... नहीं, नहीं पाकिस्तान में...! ” फ़ज़लदीन बौखला-सा गया. बिशन सिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान आफ़ दी दुर फ़िटे मुँह...! ”

तबादले की तैयारियाँ मुकम्मल हो चुकी थीं, इधर से उधर और उधर से इधर आनेवाले पागलों की फ़ेहरिस्तें पहुँच चुकी थीं और तबादले का दिन भी मुक़र्रर हो चुका था

सख़्त सर्दियाँ थीं जब लाहौर के पागलख़ाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी हुई लारियाँ पुलिस के मुहाफ़िज़ दस्ते के साथ रवाना हुई, मुताल्लिक़ा अफ़सर भी हमराह थे. वागह के बौर्डर पर तरफ़ैन के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और इब्तिदाई कार्रवाई ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया, जो रात भर जारी रहा

पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिया : “टोबा टेक सिंह यहाँ है..! ” और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! ”

पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफ़सरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था; बाज़ तो बाहर निकलते ही नहीं थे, जो निकलने पर रज़ामंद होते थे, उनको संभालना मुश्किल हो जाता था, क्योंकि उन्हें फाड़कर अपने तन से जुदा कर देते-कोई गालियाँ बक रहा है... कोई गा रहा है... कुछ आपस में झगड़ रहे हैं... कुछ रो रहे हैं, बिलख रहे हैं-कान पड़ी आवाज़ सुनाई नहीं देती थी- पागल औरतों का शोरो-ग़ोग़ा अलग था, और सर्दी इतनी कड़ाके की थी कि दाँत से दाँत बज रहे थे

पागलों की अक्सरीयत इस तबादले के हक़ में नहीं थी, इसलिए कि उनकी समझ में नहीं रहा था कि उन्हें अपनी जगह से उख़ाड़कर कहाँ फेंका जा रहा है; वह चंद जो कुछ सोच-समझ सकते थे, “पाकिस्तान : ज़िंदाबादऔरपाकिस्तान : मुर्दाबादके नारे लगा रहे थे ; दो-तीन मर्तबा फ़साद होते-होते बचा, क्योंकि बाज़ मुसलमानों और सिखों को यह नारे सुनकर तैश गया था

जब बिशन सिंह की बारी आई और वागन के उस पार का मुताल्लिक़ अफ़सर उसका नाम रजिस्टर में दर्ज करने लगा तो उसने पूछा : “टोबा टेक सिंह कहाँ है... पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में.... ?”

मुताल्लिक़ा अफ़सर हँसा : “पाकिस्तान में...! ”

यह सुनकर बिशन सिंह उछलकर एक तरफ़ हटा और दौड़कर अपने बाक़ीमादा साथियों के पास पहुंच गया.
पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ़ ले जाने लगे, मगर उसने चलने से इनकार कर दिया : “टोबा टेक सिंह यहाँ है..! ” और ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा : “औपड़ दि गड़ गड़ दि अनैक्स दि बेध्यानाँ दि मुंग दि दाल आफ़ दी टोबा टेक सिंह एंड पाकिस्तान...! ”

उसे बहुत समझाया गया कि देखो, अब टोबा टेक सिंह हिंदुस्तान में चला गया... अगर नहीं गया है तो उसे फ़ौरन वहाँ भेज दिया जाएगा, मगर वह माना! जब उसको जबर्दस्ती दूसरी तरफ़ ले जाने की कोशिश की गई तो वह दरमियान में एक जगह इस अंदाज़ में अपनी सूजी हुई टाँगों पर खड़ा हो गया जैसे अब उसे कोई ताक़त नहीं हिला सकेगी... आदमी चूंकि बे-ज़रर था, इसलिए उससे मज़ीद ज़बर्दस्ती की गई ; उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया, और तबादले का बाक़ी काम होता रहा

सूरज निकलने से पहले साकितो-सामित (बिना हिलेडुले खड़े) बिशन सिंह के हलक़ के एक फ़लक शिगाफ़(गगनभेदी) चीख़ निकली

इधर-उधर से कई अफ़सर दौड़े आए और उन्होंने देखा कि वह आदमी जो 15 बरस तक दिन-रात अपनी दाँगों पर खड़ा रहा था, औंधे मुँह लेटा है-उधर ख़ारदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था, इधर वैसे ही तारों के पीछे पाकिस्तान ; दरमियान में ज़मीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था, टोबा टेक सिंह पड़ा था.

('दस्तावेज़' राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली से साभार)