Tuesday, September 28, 2010

पसंद 37 (शक्ति का इतना प्रदर्शन)

शक्ति का इतना प्रदर्शन,
प्रश्न करती हैं दिशाएं
चेतना को क्रत्तिम साँसे
और कब तक दे हवाएं
देवताओं के अहम् का
अंश जाया आदमी है
और कब त़क युद्ध की
लिखता रहेगा भूमिकाएं ||

लेखक - अज्ञात (किसी कवि सम्मलेन में सुनी थी बचपन में)

Saturday, September 25, 2010

पसंद 36 (क्षणिकाएं)

ये कुछ क्षणिकाएं मैंने बचपन में "कादम्बनी" में पढ़ी थींलेखक का नाम याद नहीं है.. आप भी आनंद लीजिये कम शब्दों में छिपी गहराई का...

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देख लेती हैं
जीवन के सपने
अंधी आँखे भी

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आखिरी युद्ध
लड़ना है अकेले
मौत के साथ

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कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना

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पल भर को सही
तोडा तो जुगनू ने
रात का अहम्

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समुद्र नहीं,
परछाई खुद की
लाँघो तो जाने

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छाँव की नहीं,

ऊंचाइयों की होड़ है
यूकेलिप्टिसों में

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तुम ही बताओ
खुदा औ भ्रष्टाचार
कहाँ नहीं है

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धूल ढकेगी
पत्तों की हरीतिमा
कितने दिन

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Thursday, September 23, 2010

पसंद 35 (हम पंछी उन्मुक्त गगन के)

हम पंछी उन्मुक्त गगन के
पिंजरबद्ध न गा पाऍंगे
कनक-तीलियों से टकराकर
पुलकित पंख टूट जाऍंगे ।


हम बहता जल पीनेवाले
मर जाऍंगे भूखे-प्यासे
कहीं भली है कटुक निबोरी
कनक-कटोरी की मैदा से ।


स्वर्ण-श्रृंखला के बंधन में
अपनी गति, उड़ान सब भूले
बस सपनों में देख रहे हैं
तरू की फुनगी पर के झूले ।


ऐसे थे अरमान कि उड़ते
नील गगन की सीमा पाने
लाल किरण-सी चोंच खोल
चुगते तारक-अनार के दाने ।


होती सीमाहीन क्षितिज से
इन पंखों की होड़ा-होड़ी
या तो क्षितिज मिलन बन जाता
या तनती सॉंसों की डोरी ।


नीड़ न दो, चाहे टहनी का
आश्रय छिन्न-भिन्न कर डालो
लेकिन पंख दिए हैं तो
आकुल उड़ान में विघ्न न डालो ।

- रचयिता -
शिवमंगल सिंह सुमन