रूप से कह दो की देखे दूसरा घर ,
में गरीबो की जवानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है |
बचपने में मुश्किलों की गोद में पलती रही मैं
धुंए की चादर लपेटे, हर घड़ी जलती रही मैं
ज्योति की दुल्हन बिठाए, ज़िन्दगी की पालकी में
सांस की पगडंडियों पर रात - दिन चलती रही मैं
वे ख़रीदे स्वप्न, जिनकी आँख पर सोना चढ़ा हो
मैं आभावों की कहानी हूँ, मुझे फुर्सत नहींन है |
मानती हूँ मैं, कि मैं भी आदमी का मन लिए हूँ
देह की दीवार पर, तस्वीर सा यौवन लिए हूँ
भूख की ज्वाला बुझाऊ, या रचाऊँ रास लीला
आदमी हूँ, देवताओं से कठिन जीवन लिए हूँ
तितलियों, पूरा चमन है, मप्यार का व्यापार कर लो
मैं समर्पण की दीवानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है|
जी रहीं हूँ क्योकि मैं निर्माण की पहली कड़ी हूँ
आदमी की प्रगति बनकर, हर मुसीबत से लड़ी हूँ
मैं समय के पृष्ठ पर श्रम की कहानी लिख रही हूँ
नींद की मदिरा न छिड़को, मैं परीक्षा की घड़ी हूँ
हो जिन्हें अवकाश, खेले रूप रंगों के खिलौने
मैं पसीने की रवानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं है|
ज़िदगी आखिर कब तक सब की मूरत गढ़ेगी
घुटन जितनी ही अधिक हो, आंच उतनी ही बढ़ेगी
आंधियो को भी बुलाना दर्द वाले जानते हैं
रूढ़ियों की राख कब तक, आंच के सर पर चढ़ेगी
शौक हो जिनको जियें पर्चियों की ओट ले कर
मैं उजाले की निशानी हूँ, मुझे फुर्सत नहीं हैं |
- देवीप्रसाद शुक्ल राही