Saturday, February 28, 2009

पसंद - 33 (जवानी)

प्राण अन्तर में लिये, पागल जवानी !

कौन कहता है कि तू

विधवा हुई, खो आज पानी?

चल रहीं घड़ियाँ,

चले नभ के सितारे,

चल रहीं नदियाँ,

चले हिम-खंड प्यारे;

चल रही है साँस,

फिर तू ठहर जाये?

दो सदी पीछे कि

तेरी लहर जाये?


पहन ले नर-मुंड-माला,

उठ, स्वमुंड सुमेस्र् कर ले;

भूमि-सा तू पहन बाना आज धानी

प्राण तेरे साथ हैं, उठ री जवानी!


द्वार बलि का खोल

चल, भूडोल कर दें,

एक हिम-गिरि एक सिर

का मोल कर दें

मसल कर, अपने

इरादों-सी, उठा कर,

दो हथेली हैं कि

पृथ्वी गोल कर दें?


रक्त है? या है नसों में क्षुद्र पानी!

जाँच कर, तू सीस दे-देकर जवानी?


वह कली के गर्भ से, फल-

रूप में, अरमान आया!

देख तो मीठा इरादा, किस

तरह, सिर तान आया!

डालियों ने भूमि स्र्ख लटका

दिये फल, देख आली !

मस्तकों को दे रही

संकेत कैसे, वृक्ष-डाली !


फल दिये? या सिर दिये?त तस्र् की कहानी-

गूँथकर युग में, बताती चल जवानी !


श्वान के सिर हो-

चरण तो चाटता है!

भोंक ले-क्या सिंह

को वह डाँटता है?

रोटियाँ खायीं कि

साहस खा चुका है,

प्राणि हो, पर प्राण से

वह जा चुका है।


तुम न खोलो ग्राम-सिंहों मे भवानी !

विश्व की अभिमन मस्तानी जवानी !


ये न मग हैं, तव

चरण की रखियाँ हैं,

बलि दिशा की अमर

देखा-देखियाँ हैं।

विश्व पर, पद से लिखे

कृति लेख हैं ये,

धरा तीर्थों की दिशा

की मेख हैं ये।


प्राण-रेखा खींच दे, उठ बोल रानी,

री मरण के मोल की चढ़ती जवानी।


टूटता-जुड़ता समय

`भूगोल' आया,

गोद में मणियाँ समेट

खगोल आया,

क्या जले बारूद?-

हिम के प्राण पाये!

क्या मिला? जो प्रलय

के सपने न आये।

धरा?- यह तरबूज

है दो फाँक कर दे,


चढ़ा दे स्वातन्त्रय-प्रभू पर अमर पानी।

विश्व माने-तू जवानी है, जवानी !


लाल चेहरा है नहीं-

फिर लाल किसके?

लाल खून नहीं?

अरे, कंकाल किसके?

प्रेरणा सोयी कि

आटा-दाल किसके?

सिर न चढ़ पाया

कि छाया-माल किसके?


वेद की वाणी कि हो आकाश-वाणी,


धूल है जो जग नहीं पायी जवानी।


विश्व है असि का?-

नहीं संकल्प का है;

हर प्रलय का कोण

काया-कल्प का है;

फूल गिरते, शूल

शिर ऊँचा लिये हैं;

रसों के अभिमान

को नीरस किये हैं।


खून हो जाये न तेरा देख, पानी,

मर का त्यौहार, जीवन की जवानी।


रचयिता - माखनलाल चतुर्वेदी