Saturday, August 9, 2008

पसंद -18 (सच है महज़ संघर्ष ही)

सच हम नही, सच तुम नही
सच है महज़ संघर्ष ही

संघर्ष से हट कर जिए तो क्या जिए हम या कि तुम
जो नत हुआ वो मृत हुआ, ज्यों वृन्त से झर-कर कुसुम
जो लक्ष्य भूल रुका नही,
जो हार देख झुका नही
जिसने प्रणय पाथेय माना, यह जीत उसकी ही रही
सच हम...

ऐसा करो के प्राणों में ना कहीँ जड़ता रहे
जो है जहाँ चुपचाप अपने आप से लड़ता रहे
जो भी परिस्थितियाँ मिलें,
काटें चुभें कलियाँ खिलें
हारे नही इंसान, है उद्देश्य जीवन का यही
सच हम..

हमने रचा आओ हम ही अब तोड़ दें इस प्यार को
यह क्या मिलन, मिलना वही जो मोड़ दे मंझदार को
जो साथ फूलों के चले,
जो ढाल पाते ही ढले
वह ज़िंदगी क्या ज़िंदगी जो सिर्फ़ पानी सी बही
सच हम...

संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित
पर झाँक कर देखो दृगों में है सभी प्यासे थकित
जब तक बंधी है चेतना,
जब तक ह्रदय दुःख से घना
तब तक न मानूंगा कभी, इस राह को ही मैं सही
सच हम...

अपने हृदय का सत्य अपने आप हमको खोजना
अपने नयन का नीर अपने आप हमको पोंछना
आकाश सुख देगा नही,
धरती पसीजी है कहीँ?
जिससे ह्रदय को बल मिले है ध्येय अपना तो वही
सच हम॥

-
डॉ. जगदीश गुप्त

3 comments:

Anonymous said...

nice poem. can u please tell me the name of the writer of this poem? this is my favorite since chilhood bt dsnt know the author...

राज भाटिय़ा said...

बहुत सुंदर कविता लिखी हे आप ने,धन्यवाद

Akhil said...

यह कविता डा. जगदीश गुप्ता जी की लिखी हुई है. मुझे बचपन से पसंद है. कृपया भ्रमित न हों की ये मैंने लिखी है..