Thursday, October 30, 2008

पसंद २१ - इंशाजी उठो अब कूच करो

मेरी पसंद में आज प्रस्तुत है इब्ने इंशा साहब के एक बेहद खूबसूरत ग़ज़ल - इंशाजी उठो अब कूच करोवीडियो में इस ग़ज़ल को प्रस्तुत कर रहे हैं अपने समय के प्रसिद्द ग़ज़लकार उस्ताद अमानत अली खानतो आप भी लुत्फ़ उठाइए एक बेहतरीन ग़ज़ल और उतनी ही बेहतरीन प्रस्तुति का -



इंशाजी उठो अब कूच करो,

इस शहर में जी का लगाना क्या
वहशी को सुकूं से क्या मतलब,
जोगी का नगर में ठिकाना क्या

इस दिल के दरीदा दामन में
देखो तो सही, सोचो तो सही
जिस झोली में सौ छेद हुए
उस झोली को फैलाना क्या

शब बीती चाँद भी डूब चला
ज़ंजीर पड़ी दरवाज़े पे
क्यों देर गये घर आये हो
सजनी से करोगे बहाना क्या

जब शहर के लोग न रस्ता दें
क्यों बन में न जा बिसराम करें
दीवानों की सी न बात करे
तो और करे दीवाना क्या

- इब्ने इंशा

1 comment:

Anonymous said...

kya baat hai akhil ji.. mujhe bhi ye bahut pasand hei..