Friday, June 6, 2008

पसंद - ७ (पुष्प की अभिलाषा)

पुष्प की अभिलाषा
- माखनलाल चतुर्वेदी

चाह नहीं मैं सुरबाला के

गहनों में गूंथा जाऊँ,

चाह नहीं प्रेमी-माला में

बिंध प्यारी को ललचाऊँ,

चाह नहीं, सम्राटों के शव

पर, है हरि, डाला जाऊँ

चाह नहीं, देवों के शिर पर,

चढ़ूँ भाग्य पर इठलाऊँ!

मुझे तोड़ लेना वनमाली!

उस पथ पर देना तुम फेंक,

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पथ जावें वीर अनेक।


2 comments:

हरिमोहन सिंह said...

बचपन में किसी कक्षा में पढी थी और आज भी याद है । आपने बचपन की याद दिला दी

गरिमा said...

माखनलाल चतुर्वेदी जी कि यह कविता तो हमेशा ही याद रहेगी.. इसे अपनी पसन्द मे शामिल करने के लिये शुक्रिया भईया ।